12 रुपए दर्जन वाले दीयों पर भारी पड़ रही 100 रुपए की चाइनीज लडिय़ां

10/24/2019 11:14:15 AM

रानियां (दीये मेहता): आधुनिकता की चकाचौंध और बढ़ती महंगाई ने कुम्हारों को भले ही बदहाली की कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है। दूसरों के घरों को रोशन करने के लिए दीये बनाने वालों के घरों में आज अंधेरा पसरा है लेकिन कुम्हार समुदाय के लोग अपने पुश्तैनी को आज भी जिंदा रखने के लिए अब मिट्टी के दीये बनाने आरंभ कर दिए हैं। 

कुम्हार समुदाय के लोगों ने पिछली दीवाली पर 1500 रुपए ट्राली के हिसाब से मिट्टी खरीदी थी लेकिन इस बार मिट्टी का रेट 1500 रुपए से बढ़कर 2000 रुपए हो गया है। नदी की चिकनी मिट्टी की बजाय इस बार खेतों की मिट्टी के दिए बनाए जा रहे हंै। प्रदेश में माटी कला बोर्ड की स्थापना के बावजूद मिट्टी के बर्तन दीये आदि बनाने वाले कारीगरों की कला नित प्राय लुप्त होती जा रही है। 

सरकार के असहयोग वाले रवैये के चलते जिले में कुछ एक ही कारीगर इस कला को घाटे का सौदा होने के बावजूद जीवित रखे हुए हैं ताकि मिट्टी के दीये बनाने का पुस्तैनी व्यवसाय दम न तोड़े। सरकार यदि इस कला को प्रोत्साहन नहीं दे पाई तो दीवाली जैसे अवसरों पर भी मिट्टी के दीये को लोग एक दशक बाद संग्रहालयों में ही देखते नजर आएंगे क्योंकि 12 रुपए दर्जन वाले दीये पर 100 रुपए की चाइनीज लडिय़ां भारी पड़ रही हैं। 

दीवाली नजदीक आते ही पूजन के लिए मिट्टी के दीये बनाने कार्य शुरू हो गया है। इसको लेकर यह व्यवसाय छोड़ चुके तमाम परिवार परम्परा सहेजने के लिए एक बार फिर इस कार्य में जुट गए हैं। फिलहाल मजदूरी से परिवार का भरण पोषण करने वाले रानियां के रमेश कुमार, सुभाष कुमार प्रजापत पुत्र रणजीत सिंह भी परंपरा निभाने के लिए अपनी पत्नी व बच्चों के साथ मिलकर दीये बना रहे हैं ताकि मिट्टी के दीये बनाने का पुस्तैनी व्यवसाय दम न तोड़े। रमेश कुमार का कहना है कि आजकल मिट्टी के बर्तनों की मांग कम होती है।  इससे यह कार्य ठप्प होने की कगार पर है, उनके यहां पुरखे अरसे से बर्तन बनाने का कार्य कर रहे हैं, मगर रोजी-रोटी के लिए पूरे साल यह कार्य नहीं करते। दीवाली पर दीये का महत्व और मांग को देखते हुए पुरखों की परंपरा निभा रहे हैं और प्रतिदिन 900 से 1000 दीये बनाते हंै।

Isha