मिट्टी के बर्तन बनाने का कारोबार होता जा रहा चौपट, लागत ज्यादा व बचत कम

11/7/2020 10:42:49 AM

गुडग़ांव : प्राचीन काल से मिट्टी के बर्तनों का प्रचलन चला आ रहा है, लेकिन अब आधुनिकता के इस दौर व बदलते परिवेश में मिट्टी के बर्तनों के प्रति लोगों का रुझान दिन-प्रतिदिन कम होता जा रहा है, जिससे मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कुंभकार समुदाय के सामने रोजी-रोटी की समस्या भी पैदा हो गई है। हालांकि इस समुदाय ने सामाजिक वातावरण को देखते हुए अन्य क्षेत्रों में काम करना शुरु कर दिया है। क्योंकि मिट्टी के बर्तन बनाने में लागत अधिक आती है और मुनाफा कम ही होता है। समुदाय के लोग अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने में प्रयासरत हैं।

समुदाय के लोगों का कहना है कि मिट्टी के बर्तन व दीपावली पर दीये आदि बनाने का उनका पुस्तैनी काम रहा है। पीढ़ी दर पीढ़ी इस काम को करते रहे हैं, लेकिन अब यह कारोबार एक तरह से खत्म ही हो चुका है। क्योंकि बर्तन बनाने के लिए मिट्टी भी उपलब्ध नहीं है। मिट्टी के लिए उन्हें इधर-उधर भटकना पड़ता है। जहां मिट्टी के बर्तन पहले समुदाय के लोग हाथ से बनाते थे, लेकिन आधुनिकता के इस दौर में यह कार्य मशीनों ने ले लिया तो हाथ से बनाने वाले बर्तनों का कारोबार चौपट ही हो गया है। समुदाय के लोगों का कहना है कि यदि वे मशीन से बर्तन बनाने के लिए ऋण भी लेना चाहें तो उन्हें नहीं मिलता।

हालांकि प्रदेश सरकार ने कुंभकार आयोग का गठन भी किया हुआ है, लेकिन इसके बावजूद भी उनकी समस्याओं का समाधान नहीं हो पा रहा है। समुदाय के लोगों का कहना है कि एक दशक पूर्व मिट्टी की एक ट्रॉली 300 रुपए में मिल जाती थी, लेकिन अब वही ट्रॉली 1200 रुपए में मिलती है। अब यह काम घाटे का सौदा हो गया है। पहले मिट्टी के बर्तन बनाने में लागत बहुत कम आती थी।

इन बर्तनों को पकाने के लिए उपलों की व्यवस्था गांव से ही हो जाती थी, लेकिन अब तो मिट्टी खरीदनी पड़ती है और उपले भी आसानी से नहीं मिलते। उपलों की बजाय लकड़े का बुरादा लेना पड़ता है, जो काफी महंगा मिलता है। समुदाय के लोगों का यह भी कहना है कि मिट्टी का एक मटका बनाने में लगभग 50 रुपए की लागत आती है और वह मात्र 55 रुपए में ही बिकता है, जबकि एक दशक पूर्व एक मटका बनाने में मात्र 2 रुपए की लागत आती थी और वही मटका 10 रुपए में बिक जाता था। अब ऐसे में कैसे मिट्टी के बर्तन बनाने का काम किया जा सकता है। 

Manisha rana