रोजाना किसी कोने में होती हड़तालें विडंबना या दुर्भाग्य, कर्मचारियों की हड़तालें कितनी सच्ची-कितनी गलत ?
punjabkesari.in Thursday, Sep 07, 2023 - 09:24 PM (IST)

चंडीगढ़ (चन्द्र शेखर धरणी): इसे भारत देश की महानता कहें, विडंबना कहें या फिर दुर्भाग्य। क्योंकि भारत गणराज्य में ऐसा कोई दिन नहीं जब कहीं-ना-कहीं किसी-न-किसी प्रदेश में किसी बात को लेकर कोई-ना-कोई विभाग हड़ताल पर ना रहता हो। कहीं डॉक तार विभाग, कहीं लोक निर्माण विभाग और कहीं स्वास्थ्य विभाग यानि किसी विभाग का कोई-ना-कोई काडर हड़ताल पर होता है। लोकतांत्रिक प्रणाली में हलांकि शांतिपूर्वक अपनी बात कहने सुनने का सभी को अधिकार है। शांतिपूर्वक हड़ताल भी इसी का एक हिस्सा है। लेकिन यह अंतिम कृत्य माना जाता है।
किसी कैडर या वर्ग विशेष की कोई मांग या शिकायत सबसे पहले अपने विभाग के मुखिया को देने का प्रोविजन है। उसके बाद सांकेतिक हड़ताल, फिर काली पट्टी बांधने, फिर आंशिककालीन हड़ताल और अंत में जब सरकार द्वारा संतोषजनक-सकारात्मक आश्वासन या कार्रवाई न दी जाए, इस सूरत में बेमियादी हड़ताल का नंबर आता है। हर कल्याणकारी सरकार का यह दायित्व है कि प्रथम स्तर पर ही समस्या को न केवल सुने बल्कि उसे गंभीरता से लेते हुए अपने कर्मचारियों को संतुष्ट करे। उचित-अनुचित बारे कर्मचारियों को समझाइए, नहीं मानने के हालातों में वरिष्ठ स्तर पर बैठे अधिकारियों द्वारा समस्या को सुलझाने का प्रयास होना चाहिए। मांग अनुचित होने की सूरत में इसे पब्लिक डोमेन में डालना चाहिए। लेकिन वरिष्ठ अधिकारियों और सरकारों द्वारा पूरी संवेदनशीलता दिखाई जानी चाहिए, क्योंकि गलत तथ्य पेश करना भी एक अपराध है।
आज भारतवर्ष में ऐसा माहौल बना हुआ है कि एक वर्ग दूसरे वर्ग से अपने को श्रेष्ठ साबित करने में लगा नजर आता है। अधिकतर हड़तालों का मुख्य कारण भी यही है। इस बारे में एक अत्यंत सम्बद्ध व ज्वलंत उदाहरण पेश करना चाहता हूं, जिससे आम जनमानस को आसानी से यह आभास हो जाएगा कि कर्मचारी गलत होते हैं या फिर सरकारें। आमतौर पर पंजाब- हरियाणा में जब भी विधायक की पगार बढ़ानी हो तो पड़ोसी राज्य से 1000 रुपए ज्यादा कर दी जाती है। फिर दूसरा राज्य द्वारा पड़ोसी राज्य के समान की मांग उचित मानकर संस्तुति कर दी जाती है और फिर वह पड़ोसी राज्य दूसरे राज्य से कुछ ऊपर कर लेता है, ताकि पड़ोसी राज्य उसकी तुलना पर फिर मांग कर सके। यह तुलना लगभग प्रत्येक वर्ष चलती रहती है। पिछले 10 वर्षों पर अगर नजर डालें और पुष्टि करें कि जब भी विधायकों- मंत्रियों- अधिकारियों ने अपनी पगार बढ़ानी हो तो चर्चा तक नहीं होती और सारा विपक्ष भी राजी होता है। लेकिन जब भी कर्मचारी इस प्रकार की मांग करता है तो इसे कयामत के रूप में देखा जाता है।
अगर देखे अधिकांश हड़तालों का मुख्य कारण वेतन विसंगतियां ही होती हैं। हम भारतीय सेवा का उदाहरण लें और तदानुसार ही वेतन निर्धारित करें और उसे ईमानदारी से लागू करें तो इन हड़तालों से अवश्य ही छुटकारा संभव है, लेकिन ना तो केंद्रीय और ना ही राज्य स्तर पर ऐसी कभी कोई योजना बनाई गई है। यह तो कहना मुश्किल है कि सरकार इसे करना नहीं चाहती या अधिकारी आर्मी वाले तथ्य से परिचित नहीं हैं। गौरतलब है कि आर्मी में एनईआर (नॉन मैट्रिक एंट्री रेट), एमईआर (मैट्रिक एंट्री रेट) जीईआर (ग्रेजुएट एंट्री रेट) है। जिससे कहीं से भी कोई शिकायत या मांग इस चीज के विरोध नहीं आई, क्योंकि स्लैब तर्कसंगत है। इसी प्रकार का कोई सिस्टम सिविल साइड में भी अपनाया जाए तो स्थिति काफी नियंत्रण में लाई जा सकती है। यहां हर विभाग में वेतन के सैकड़ो स्लैब हैं, जिन्हें मर्ज किया जा सकता है। डिप्लोमा, डिग्री, टेक्निकल क्वालिफिकेशन के एडिशनल कोर्स फिक्स किया जा सकते हैं जो अगर व्यावहारिक हो तो इसमें किसी को आपत्ति नहीं होगी।
वेतन विसंगतियों के अतिरिक्त बहुत कम ही मुद्दे हड़तालों का कारण बनते हैं। बाकि अन्य विवादों का कारण आमतौर पर वित्तीय नहीं होता। जिसे अधिकारी अपने स्तर पर रुचि लेकर निपटा सकते हैं। लेकिन अधिकतर ऐसा होता नहीं। हर मुद्दा सरकार को भेजने की आदत भी सर्वथा उचित नहीं है। इससे न केवल कर्मचारियों में असंतोष पनपता है बल्कि सरकार के कार्यों में भी अड़चन पैदा होती है। कई कर्मचारी संगठनों-अधिकारियों से परामर्श उपरांत यह कहना कतई गलत नहीं होगा कि अधिकांश मामलों में अधिकारी स्तर पर मामला बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करना और सरकार को गलत तथ्य प्रस्तुत किया जाना अधिकारियों की आदतों में शुमार है। जिससे सारा दोष सरकार व पार्टी पर मंड दिया जाता है और अधिकारी पूरी भूमिका के बावजूद भी पाक साफ रहते हैं। सभी राजनीतिक पार्टियों को इस स्थिति को समझना चाहिए और केवल अधिकारियों द्वारा प्रस्तुत चित्र को सही नहीं मानना चाहिए।
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